दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र हैं हम। बचपन से स्कूल में, किताबों में, राजनेताओं के अभिभाषणों में, घरों में यह बात सुनते आए हैं हम। लोकतंत्र का म’आनी जाना तो पता लगा कि लोक का तंत्र। यानी जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन। शासन खूब दहाड़ रहा है मगर जनता कहाँ है? अब सिर्फ़ शासन है। जनता कहीं पीछे छूट चुकी है।
लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद पटल में बजट सत्र जारी है। हफ़्ते भर पहले ही देश का बजट तय किया गया है। बजट कैसा था कैसा नहीं इस पर मैं बात नहीं करना चाहता। 7 फरवरी को देश की संसद में खड़े होकर देश के मुखिया माननीय नरेंद्र मोदी ने तमाम विपक्षी दलों का नाम लेते हुए कहा कि कोरोना की पहली लहर के दौरान प्रवासी मज़दूरों को विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने बसों और ट्रेन टिकट देकर घर भेजा जिसकी वजह से उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में कोरोना फैला। शुक्र है मंगल ग्रह इसके बाद सोशल मीडिया पर दो प्रदेशों के मुखिया माननीय अरविन्द केजरीवाल और माननीय योगी आदित्यनाथ ने एक दूसरे के लिए सड़कछाप भाषा का प्रयोग करते हुए आक्षेप लगाए।
उर्दू के मशहूर शाइर मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर यूँ है कि
“दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या”
मगर यहाँ ज़ख्म खुद नहीं कुरेदे जा रहे, सरकार कुरेद रही है। दो दिन पहले सोशल मीडिया पर कोरोना काल के संघर्ष की हजारों वीडियो और तस्वीर तैरने लगी। यूँ लगा कि आम जनता के जो ज़ख्म भरने लगे थे उन पर किसी ने नाखून मार दिए हों। ज़ख्म के मुहाने से दुबारा लहू बहने लगा। ऐसा कोई इंसान नहीं जिसका अपना दुख नहीं रहा हो कोरोना काल का। जो दुख इंसान ने अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के बोझ तले दबा दिए थे सरकारें उन्हें वापस कुरेद कर निकाल रही हैं।
मैं सरकारों से और इन तमाम राजनैतिक दलों के मुखियाओं से यह सवाल करना चाहता हूँ कि आपकी नज़र में क्या इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं है? मैं किसी दल विशेष की या सरकार विशेष की बात नहीं कर रहा हूँ। जब पहली लहर के बाद लॉकडाउन हुआ तो देश के ग़रीब मज़दूर सड़कों पर थे। भरी गर्मी में सड़कों पर नंगे पाँव चलते चलते जाने कितने लोग अपने घर तक पहुँच ही नहीं पाए। चुनाव प्रचार में तमाम राजनैतिक दलों के काफिलों में दिखाई देने वाली हज़ारों हज़ार बसें, रथ, गाड़ियाँ सब नदारद थीं।
वे सब लोग जो अपने बच्चों को अपने सामान को कंधों पर लाद कर हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर घर जाने का फैसला इसलिए नहीं कर रहे थे क्यूँकि उन्हें कोरोना से मौत का डर था। बल्कि वो ऐसा इसलिए कर रहे थे कि आप तमाम सरकारें उन्हें ये भरोसा तक नहीं दिलवा सके कि उनके खुद के देश में अगर उन्हें एक महीने काम नहीं मिलेगा तो वे भूख से नहीं मरेंगे। आप तमाम राजनैतिक दलों के तथाकथित सामाजिक संगठन समाज से नदारद थे। आप सरकारों की तमाम राशन वितरण इकाइयाँ नदारद थी जब समाज की एक इकाई, जिसकी संख्या करोड़ों में है, भूखे मरने के डर से पैदल घरों को निकल पड़ी और रास्ते में मर गई।
दुनिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क अपने नागरिकों को आपदा से निकालने के लिए पैसे माँग रहा था तो देश का संविधान अपने मूल्यों के गले लग लग कर रो रहा था। तमाम राजनैतिक दलों के नेताओं की रैलियों में भीड़ लाने के लिए बसें रेल सब तैयार हो जाती हैं मगर उन मज़दूरों के लिए कुछ नहीं था। आखिर वो ग़रीब मज़दूर सरकारों को किस बात का टैक्स देते रहे हैं पूरी ज़िंदगी?
जब दूसरी लहर शुरू हुई तो उससे पहले सभी राज्य और केंद्र सरकारें दावे कर रही थी कोरोना को जंग में हरा देने के। राजनैतिक मंचों से और संसद पटल से बड़े बड़े दावे किए गए। मगर जब दूसरी लहर आई तो तमाम दावे कहीं पीछे छूट गए और पीछे छूट गया मानव जीवन का मूल्य। दूसरी लहर के दौरान देश का कोई इंसान नहीं बचा जिसके घर परिवार से लाशें नहीं उठीं। सम्मानजनक ज़िंदगी छोड़िए मृत्यु तक नहीं नसीब हुई लोगों को।
अब जब उन बातों पर उन जख्मों पर वक़्त मरहम लगा रहा है तो सरकार उन्हें कुरेदिए मत। कुछ नहीं कर पाए आप जब लोग मर रहे थे सड़कों पर अस्पतालों में। कुछ नहीं कर पाए आप जब लाशों को गंगा किनारे दबा दिया जा रहा था और उन्हें कुत्ते निकाल निकाल कर खा रहे थे। कुछ नहीं कर पाए आप जब अपनों को एक एक सांस के लिए हर एक इंसान तड़पते देख रहा था। ये सब व्यक्तिगत दुख हैं इस देश के नागरिकों के।
सरकारों को चाहिए कि संवेदनशीलता दिखाए। कुछ और नहीं कर पाते हैं तो कम से कम उन दुखों को स्वीकारिए। एक दूसरे दल पर कीचड़ उछालने के लिए हज़ार और मुद्दे हैं। कोरोना का दुख व्यक्तिगत दुख है जिसके लिए तमाम सरकारें, तमाम राजनैतिक दल सामूहिक तौर पर ज़िम्मेदार हैं। चिताओं की आग पर शोक मनाया जाता है, रोटियाँ नहीं सेकी जाती।