हरियाणा कॉंग्रेस के बहुचर्चित और लोकप्रिय नेता दीपेन्द्र हुड्डा ने कुछ रोज़ पहले संसद में अहीर रेजीमेंट बनाए जाने की माँग उठाई। उन्होंने अपने भाषण में अहीरों की वीरता का हवाला देते हुए कहा, “जब जब देश पर देश पर संकट आया है तब तब जय यादव-जय माधव के नारे के साथ यादवों ने बलिदान दिया है। अब वक़्त आ गया है कि सेना में उनके बलिदान को पहचान मिले और अहीर रेजीमेंट का गठन किया जाए।”
दीपेन्द्र हुड्डा यह माँग उठाने वाले अकेले राजनेता नहीं हैं, राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज कुमार झा ने भी राज्यसभा में इसकी माँग उठाई थी। जनता के स्तर पर भी यह माँग काफी लंबे समय से चाल रही है। 2018 में भी इस माँग को लेकर संयुक्त अहीर रेजीमेंट मोर्चा की तरफ से पहले भी इस मुद्दे पर 9 दिन की भूख हड़ताल की गई थी। अभी यह माँग दुबारा ज़ोर पकड़ने लगी है। यादव समाज की तरफ से बार बार इस माँग को लेकर धारणा प्रदर्शन किया जाता रहा है और दिनों दिन यह आंदोलन अब ज़ोर पकड़ते जा रहा है।
क्या है रेजीमेंट?
रेजीमेंट सेना का एक ग्रुप होता है। यानी कई रेजीमेंट्स से मिलकर सेना बनती है। अंग्रेजों ने रेजीमेंट्स का निर्माण किया। अंग्रेज अपने शुरुआती दिनों में समुद्री इलाकों तक सीमित थे तो सबसे पहले मद्रास रेजीमेंट बनी। इसके बाद जैसे जैसे अंग्रेजों का विस्तार होता गया अलग अलग रेजीमेंट्स बनती गईं। नौसेना और वायुसेना में रेजीमेंट्स नहीं होतीं। 1758 में पहली रेजीमेंट मद्रास रेजीमेंट का गठन हुआ।
इसके बाद पंजाब रेजीमेंट, मराठा लाइट इन्फेंटरी, गोरखा राइफल्स, राजपूत, सिक्ख आदि रेजीमेंट्स बनीं। 1857 की क्रांति के बाद जोनाथन पील कमीशन की सिफारिशों के आधार पर मार्शल क़ौमों को पहचानने का काम किया गया। जिन जातियों में लंबे चौड़े डील डौल के मर्द पाए जाते थे उन्हें मार्शल क़ौम कहके उन्हें सेना में भर्ती किया गया।
क्या सेना में जातिवाद का प्रतीक हैं रेजीमेंट्स? अगर हाँ तो सरकार जातीय रेजीमेंट्स को भंग क्यूँ नहीं करती और अगर नहीं तो अलग जातियों को नई रेजीमेंट्स क्यूँ नहीं दी गईं?
ये कुछ सवाल बार बार उठते आए हैं। दरअसल जातिगत आधार पर बनी रेजीमेंट्स का जाति से लेना देना नहीं है। एक जाति की रेजीमेंट में कई जाति के सैनिक अपनी सेवाएं देते आए हैं। किसी भी जाति आधारित रेजीमेंट में भर्ती होने वाले अफ़सर की भर्ती भी जातिगत या धार्मिक आधार पर नहीं होती है। राजपूत रेजीमेंट में बड़ी संख्या में जाट और यादव भी पाए जाते हैं और उसी तरह से जाट रेजीमेंट में बड़ी संख्या में यादव सैनिक भी सेवाएँ देते हैं। इसी प्रकार अफ़सर स्तर पर नियुक्ति के दौरान भी जाति या धर्म का ध्यान नहीं रखा जाता है।
1947 में आज़ादी मिलने के बाद हमें सेनाओं कों मजबूत बनाना था जिसकी वजह से सेना के बुनियादी ढाँचे में कोई बदलाव नहीं किया गया और उसके तुरंत बाद देश को तीन तीन युद्ध लड़ने पड़े महज़ 10 साल के अंतराल में ही। इस वजह से जातिगत रेजीमेंट्स भंग नहीं हो सकीं।

2016 में तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने संसद में बयान दिया था कि सरकार की जातिगत रेजीमेंट्स को भंग करने की कोई मंशा नहीं है। जातिगत रेजीमेंट्स सिस्टम से सेना में एकता बनी रहती है और युद्ध के वक़्त जातिगत रेजीमेंट सिस्टम कामयाब रहा है।
अहीर रेजीमेंट की माँग क्यूँ है?
बीते 4 फरवरी से गुरुग्राम में खेड़की दौला टॉल बूथ के पास बड़ी संख्या में अहीर समुदाय के लोग संयुक्त अहीर रेजीमेंट मोर्चा के बैनर तले आन्दोलनरत हैं। उनका कहना है कि अहीर समुदाय ने बीते 75 सालों में बड़ी संख्या में देश के लिए बलिदान दिया है। खासकर 1962 में रेजांग ला के युद्ध में अपनी जान देकर भी 1300 से ज़्यादा चीनी सेना को वहीं से वापस लौटा देने वाले 124 जवान भी अहीर समुदाय से ही थे।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में कराची बंदरगाह पर फ़तह कमांडर बबरूभान यादव के नेतृत्व में हासिल की थी जिसकी याद में 4 दिसंबर को नौसेना दिवस मनाया जाता है। 1965 में पाकिस्तान में हाजीपीर मोर्चा, 1967 में सिक्किम का नाथु ला मोर्चा, 1999 में कारगिल के टाइगर हिल पर 16 गोलियाँ खाने वाले योगेंद्र यादव, यह सब मोर्चों पर यादव सैनिकों ने ही शहादत दी हैं।
इसके अलावा भी दक्षिणी हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के इलाक़े जैसे गुरूग्राम, रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, अलवर, झुंझुनू के हजारों सैनिकों ने शहादतें दी हैं। अहीर समाज का कहना है कि अब वक़्त आ गया है कि सरकार अहीरों के बलिदान को पहचाने और उसके सम्मान में अहीर रेजीमेंट का गठन करे। हालाँकि ऐसी कोई माँग सेना की तरफ से या सेना में शामिल जवानों की तरफ से कभी नहीं देखी गई है लेकिन इस आंदोलन को समर्थन देने में सेना के सेवानिवृत्त जवान पीछे नहीं हटते। बड़ी संख्या में भूतपूर्व सैनिक अहीर रेजीमेंट की माँग का समर्थन करते हैं।
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