भाजपा के लिए पिछले 3 चुनाव में गढ़ की भूमिका निभाने वाले पश्चिमी उत्तरप्रदेश में बीती 10 फरवरी को 58 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव हुए। पिछले तीन चुनाव यानी 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो यहाँ भाजपा ने भारी जनसमर्थन हासिल किया था। लेकिन इस बार भाजपा के लिए माहौल बदला हुआ दिखाई दिया।
उत्तरप्रदेश के 11 जिलों की 58 सीटों पर हुए मतदान में कुछ अहम समीकरण निकलकर सामने आते हुए दिखाई दे रहे हैं। पहले चरण में चुनाव आयोग के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार प्रतिशत मतदान हुआ। मतदान प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में शहरी क्षेत्र की तुलना में अधिक रहा। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हाई प्रोफाइल सीट मानी जा रही कैराना विधानसभा के लिए सबसे अधिक मतदान प्रतिशत रहा। यहाँ 75.12% लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के ग्रामीण अञ्चल में एक आज़ादी से भी पुराना जातीय समीकरण ‘अजगर’ वापस लौटता दिखाई दे रहा है। क्या है अजगर? कहाँ से आया है? कौन था इस समीकरण का जन्मदाता? किसने सबसे अधिक फ़ायदा उठाया इसका?
‘अजगर’ एक जातीय समीकरण का नाम है। इसमें अ-अहीर/यादव, ज-जाट, ग-गुर्जर और र-राजपूत जाति शामिल हैं। इसका इस्तेमाल सबसे पहले आज़ादी के संघर्ष में सक्रिय रहे बड़े किसान नेता सर छोटूराम ने किया था। सर छोटूराम की मृत्यु के बाद यह फॉर्मूला ग़ायब हो चुका था। चौधरी चरणसिंह, जो कि किसानों के मसीहा कहे जाते हैं, ने दुबारा इस फार्मूला की तरफ देखा। उत्तरप्रदेश में जब कॉंग्रेस एकछत्र राज कर रही थ तो 80 के दशक में चौधरी चरणसिंह ने इस फार्मूला को अपनाया था।
चौधरी चरणसिंह का मानना था कि अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत चारों ही मार्शल क़ौम हैं और इनका उद्भव एक ही क़बीले से हुआ है। इसलिए वे इन्हें क़बीलाई क़ौम भी कहा करते थे। ये सभी जातियाँ कमोबेश एक ही आर्थिक और सामाजिक स्तर पर देखी जाती रही है और इन चारों जातियों को इकाई के तौर पर प्रचारित किया गया।
चौधरी चरणसिंह के इस दुनिया से गमन के बाद अजगर फार्मूला एक बार दुबारा से सिर्फ़ नाम भर रह गया था। मगर इन चुनावों में दुबारा से अजगर फॉर्मूला का नाम सुनने में आ रहा है मगर एक बदलाव के साथ।
क्या बदल गया अजगर फॉर्मूला में?
अजगर, जो कि एक जातीय समूह था, में से र यानी राजपूत अलग थलग जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। उत्तरप्रदेश चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोक दल के चौधरी जयंत ने गठबंधन किया है। चौधरी जयंत पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह के पोते हैं और अपने पिता चौधरी अजीत सिंह की राजनैतिक विरासत को संभालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
हाल ही में हुए किसान आंदोलन में किसान नेता राकेश टिकैत के साथ राष्ट्रीय लोक दल की भूमिका भी अहम थी। राकेश टिकैत खुद भी जाट समुदाय से हैं और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में बड़ा नाम हैं। इनके भाई चौधरी नरेश टिकैत भी बालियान खाप के चौधरी हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि जाट समुदाय के वोट बैंक पर इनकी ज़ोरदार पकड़ है।
समाजवादी पार्टी पर शुरुआती दौर से ही यादव/अहीर जाति की राजनीति के आरोप लगते आए हैं और यह बात कमोबेश सही भी है। यादव जाति के अधिकांश मतदाताओं ने हमेशा से मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी का साथ दिया है। गुर्जर समुदाय को जोड़ने के लिए अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने मिलकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कई गुर्जर नेताओं से संपर्क साधा और उन्हें गठबंधन के साथ जोड़ा। हालाँकि गुर्जर वोट अभी भी काफी बिखरा हुआ नज़र आता है।
अब बात करें अजगर समीकरण की चौथी जाति राजपूत समुदाय की तो वह इस समीकरण में फ़िलहाल कहीं नहीं बैठता दिखाई दे रहा है। राजपूत समुदाय का झुकाव सीधे सीधे भाजपा की तरफ दिखाई देता है। अब राजपूत समुदाय की जगह इस समीकरण में मुस्लिम समुदाय ने ले ली है। समाजवादी पार्टी को हमेशा से ही मुस्लिम समुदाय का अच्छा खासा समर्थन मिलते आया है। शायद अब वक़्त आ गया है इस समीकरण को नया नाम “अजगम” देने का।
पहले चरण के मतदान में जाट, गुर्जर, मुस्लिम और अहीर मतदाताओं की बात की जाए तो वह कुल मतदाताओं का लगभग 58 फ़ीसदी हैं। अगर यह समीकरण काम कर जाता है तो भाजपा इन चुनावों में एक बड़ी मुश्किल में फँस जाएगी।