बीते दिनों प्रधानमंत्री ने जर्मनी, फ्रांस और डेनमार्क का दौरा किया। वहाँ से लौटने के बाद प्रधानमंत्री ने गेहूँ की सप्लाई, स्टॉक और निर्यात की स्थिति की समीक्षा के मुद्दे पर एक मीटिंग की। प्रधानमंत्री ने अधिकारियों से गेहूँ के गुणवत्ता मानक पूरी तरह से लागू करने का आदेश दिया ताकि भारत एक अनाज निर्यातक के तौर पर स्थापित हो सके।
PMGKAY यानी प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना, जिसके तहत देश के ग़रीबों को हर महीने 5 किलो अनाज कम दाम पर( राज्य में चुनाव हों तो मुफ़्त) मिलता है। खाद्य मंत्रालय ने फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया को ख़त लिखकर PMGKAY के तहत ग़रीबों को मिलने वाले मासिक गेहूँ वितरण को घटा दिया है। पहले आवंटित 18.2 मिलियन टन गेहूँ को घटाकर अब 7.1 मिलियन टन कर दिया है। चावल का आवंटन 21.6 मिलियन टन से बढ़ाकर 32.7 मिलियन टन कर दिया गया है।
ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि जो हर साल बम्पर सरप्लस पैदावार गेहूँ की होती रही है वो कहाँ गई? वो गेहूँ के बड़े बड़े ढ़ेर लगे हुए फ़ोटो जो अख़बार में छपा किये थे हर साल वो कहाँ गए? क्या गेहूँ उगाना बन्द कर दिया अचानक से किसान ने? क्या धरती ने गेहूँ की पैदावार कम कर दी?
इसका जवाब है नहीं। गेहूँ की दरअस्ल कोई कमी नहीं है बल्कि यह कमी जानबूझकर पैदा की जा रही है।
इस साल मार्च महीने में भयंकर गर्मी पड़ी। 20-25 साल के रिकॉर्ड टूट गए गर्मी के। ग़ौरतलब बात है कि मार्च के महीने में गेहूँ की फसल पकने के दौर में होती है और गर्मी की वजह से फ़सल जल्दी पक गयी। जल्दी पकने की वजह से गेहूँ का दाना कमज़ोर रह गया, जिससे पैदावार कम हुई। लेकिन यह पैदावार की कमी उतनी नहीं थी कि देश में गेहूँ की कमी पड़ जाए। खेल कुछ और है। आइए समझते हैं कि यह कमी कैसे पैदा की जा रही है।
सरकारों ने गेहूँ ख़रीदा ही नहीं:
चार दिन पहले इकोनॉमिक टाइम्स अख़बार में रिपोर्ट छपी थी कि इस साल गेहूँ की सरकारी ख़रीद 44 फ़ीसदी घटा दी है केंद्र सरकार ने (कुछ राज्यों में 60 फ़ीसदी तक घटा दी गयी) ताकि अपने मित्र व्यापारियों को गेहूँ निर्यात करने की खुली छूट मिल सके। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 1 मई तक 162 लाख टन की ख़रीद हुई है जो कि पिछले साल के आँकड़ों से 44 फ़ीसदी कम है। पिछले साल इसी समय के दौरान यह आँकड़ा 288 लाख टन था।
देश की सबसे सुदृढ़ मंडियाँ अगर कहीं हैं तो वो पंजाब में हैं जहाँ पिछले साल के 112 लाख टन के मुक़ाबले इस साल महज़ 89 लाख टन की ख़रीदी हुई है। हरियाणा का इससे भी बुरा हाल है। हरियाणा में पिछले साल इसी समय के दौरान यानी 1 मई, 2021 तक 80 लाख टन की ख़रीद हुई थी जबकि इस साल यह घटकर 37 लाख टन रह गयी है। ठीक इसी तरह से मध्यप्रदेश में पिछले साल के 73 लाख टन के मुक़ाबले इस साल 34 लाख टन की ख़रीद हुई है। यह आँकड़े पढ़ते समय इस बात का ध्यान रखें कि इस बार गेहूँ की फ़सल पिछले सालों के मुक़ाबले जल्दी और कम हुई है क्योंकि मार्च के महीने में ही रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ी है।
सरकारी ने 444 लाख टन गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य रखा था इस साल। लेकिन जिस तरह के हालात दिखाई दे रहे हैं यह ख़रीद 200 लाख टन से ज़्यादा नहीं रहेगी यह तय है। इसमें से 162 लाख टन के लगभग ख़रीद हो चुकी है। ऐसे में सरकारी ख़रीद 50 फ़ीसदी से भी कम रह सकती है। 250 लाख टन कम सरकारी ख़रीद यानी सरकार ने इतना गेहूँ अपने हाथ से फिसल कर बड़े व्यापारियों के हाथ मुनाफ़ा कमाने के लिए जाने दिया।
गेहूँ का बेलगाम निर्यात:
रूस-यूक्रेन युद्ध का फ़ायदा हिंदुस्तान के प्राइवेट खिलाड़ियों को हो रहा है। रूस और यूक्रेन दोनों ही गेहूँ के बड़े निर्यातक देश हैं। युद्ध की वजह से गेहूँ की पैदावार और निर्यात पर प्रभाव पड़ा है जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेहूँ की माँग पैदा हुई है। भारतीय सरकार ने भारत के आम नागरिक की चिंता बगल में दबाकर अपने मित्र व्यापारियों की जेब की चिंता को तरजीह देते हुए गेहूँ के बेलगाम निर्यात को मंज़ूरी दे दी।
साल 2022 में 21 अप्रैल तक 10 लाख टन से अधिक गेहूँ निर्यात किया जा चुका है जबकि साल 2021 में यह आँकड़ा डेढ़ लाख टन भी नहीं था। 21 अप्रैल 2021 तक यह आँकड़ा 1.33 लाख टन था।
केंद्र सरकार किसानों से गेहूँ ख़रीद कर बड़े व्यापारियों को गेहूँ Open Market Sale Scheme के तहत खुले बाज़ार में बेचा करती थी। इसी बिक्री की वजह से साल भर गेहूँ, आटा, मैदा आदि के भाव क़ाबू में रहते हैं। इस साल उस पर भी रोक लगा दी है। यही नहीं, केंद्र सरकार ने बड़े व्यापारियों से इस योजना का इंतज़ार नहीं करने के लिए भी कह दिया है। यानी सरकार की कोई मंशा नहीं है कि वह निकट भविष्य में किसानों से ख़रीद करे और खुले बाज़ार में बेचे। प्राइवेट खिलाड़ियों को पूरी छूट दे दी गयी है स्वयं ख़रीद कर निर्यात करने की।
क्यूँ होता है ऐसा?
यह सब पहली बार नहीं हो रहा है। कालाबाज़ारी इसी को कहा जाता है। यही सब तरीके हैं बाज़ार में किसी चीज़ की सप्लाई कम करके एक कमी पैदा की जाती है और जब कम सप्लाई अधिक माँग की वजह से अचानक दाम बढ़ जाएँ तो महँगे दाम पर सप्लाई देकर मुनाफ़ा कमाया जाता रहा है। बीते साल जिन तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ़ किसान आंदोलन कर रहे थे उनमें से एक क़ानून इसी तरह से निजी व्यापारियों को बड़ी मात्र में अनाज के भंडारण की अनुमति देता था। यदि वह लागू हो जाता तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्यात की भी ज़रूरत नहीं पड़ती अपने देश में ही भंडारण करके माँग पैदा की जा सकती थी।
सीधा और आसान सा फॉर्मूला है:
बहुतायात में उत्पादन किया जाए-> प्राइवेट खिलाड़ियों के हाथों बाग़डोर सौंपी जाए -> कृत्रिम और बनावटी कमी पैदा की जाए उसी प्रोडक्ट की (सप्लाई बाधित करके/निर्यात करके) -> जब तक यह आपदा का रूप ना ले ले तब तक ‘कमी कमी’ चिल्लाया जाए-> आपदा में अवसर तलाशा जाए
बड़े व्यापारी पहले भी ऐसा करते आये हैं। पिछले कुछ महीनों की ही बात की जाए तो वैक्सीन और कोयला इसके सबसे बड़े उदाहरण निकल कर सामने आते हैं। अब गेहूँ नया ज़रिया है…आगे क्या?
आम जनता पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?
भविष्य में जो प्रभाव पड़ेगा सो तो अलग अभी से आटे के दाम आसमान छूने लगे हैं। अप्रैल महीने में देश भर में आटे का औसत भाव 32.38 रूपये प्रति किलो रहा जो कि रिकॉर्ड है। पिछले साल के मुक़ाबले यह लगभग 10 फ़ीसदी महँगा है। भविष्य में जब गेहूँ का स्टॉक ख़त्म हो जाएगा और गेहूँ, आटे के दाम आमजन की पहुँच से बाहर हो जाएँगे तो वही सरकार के मित्र व्यापारी विदेशी गेहूँ आयात करेंगे और मोटा मुनाफ़ा कमाया जाएगा।